रूह जख्मी,जिस्म छीला,
दिल बुझा सा|
कारवाँ में भी वजूद
है तन्हा सा|
मृग-मरीचिका में गुम
खुद की पहचान|
अपने हीं घर में
हम मेहमान|
ये जग अपना या
वो जग है घर|
जीर्ण –शीर्ण ये धाम
सब है जर्जर|
है आत्मा बोझिल
वहाँ जाऊं कैसे?
है दिल कलुषित,
यहाँ निभाऊँ कैसे?
स्वाति वल्लभा राज
vaah ...bahut khoob baut sundar kshanikayen.
ReplyDeleteहै आत्मा बोझिल
ReplyDeleteवहाँ जाऊं कैसे?
है दिल कलुषित,
यहाँ निभाऊँ कैसे?
बेहतरीन!
सादर
kya khoob likha hae .
ReplyDeleteव्यथा के भाव ... बहुत खूबसूरती से लिखे हैं
ReplyDeleteजाके बाबुल से नज़रें मिलाऊं कैसे!
ReplyDeleteसटीक, सुन्दर अभिव्यक्ति
है आत्मा बोझिल
ReplyDeleteवहाँ जाऊं कैसे?
है दिल कलुषित,
यहाँ निभाऊँ कैसे?
......सुन्दर अभिव्यक्ति...
रूह जख्मी,जिस्म छीला,
ReplyDeleteदिल बुझा सा|
कारवाँ में भी वजूद
है तन्हा सा|
वाह बहुत ही प्रभावपूर्ण क्षणिकाएं !!!
ये जग अपना या
ReplyDeleteवो जग है घर|.......बहुत सुन्दर
रूह जख्मी,जिस्म छीला,
ReplyDeleteदिल बुझा सा|
कारवाँ में भी वजूद
है तन्हा सा|
वाह ...बहुत खूब।
हाँ ,सुनते तो यही हैं पर पता नहीं उस पार न जाने क्या होगा !
ReplyDeleteहै आत्मा बोझिल
ReplyDeleteवहाँ जाऊं कैसे?
है दिल कलुषित,
यहाँ निभाऊँ कैसे?.... वाह !! बहुत खूब !!