Tuesday 24 April 2012

जाऊं कहाँ


रूह जख्मी,जिस्म छीला,
दिल बुझा सा|
कारवाँ में भी वजूद
है तन्हा सा|


मृग-मरीचिका में गुम
खुद की पहचान|
अपने हीं घर में
हम मेहमान|

ये जग अपना या
वो जग है घर|
जीर्ण –शीर्ण ये धाम
सब है जर्जर|

है आत्मा बोझिल
वहाँ जाऊं कैसे?
है दिल कलुषित,
यहाँ निभाऊँ कैसे?

स्वाति वल्लभा राज

11 comments:

  1. vaah ...bahut khoob baut sundar kshanikayen.

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  2. है आत्मा बोझिल
    वहाँ जाऊं कैसे?
    है दिल कलुषित,
    यहाँ निभाऊँ कैसे?


    बेहतरीन!


    सादर

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  3. व्यथा के भाव ... बहुत खूबसूरती से लिखे हैं

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  4. जाके बाबुल से नज़रें मिलाऊं कैसे!
    सटीक, सुन्दर अभिव्यक्ति

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  5. है आत्मा बोझिल
    वहाँ जाऊं कैसे?
    है दिल कलुषित,
    यहाँ निभाऊँ कैसे?
    ......सुन्दर अभिव्यक्ति...

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  6. रूह जख्मी,जिस्म छीला,
    दिल बुझा सा|
    कारवाँ में भी वजूद
    है तन्हा सा|

    वाह बहुत ही प्रभावपूर्ण क्षणिकाएं !!!

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  7. ये जग अपना या
    वो जग है घर|.......बहुत सुन्दर

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  8. रूह जख्मी,जिस्म छीला,
    दिल बुझा सा|
    कारवाँ में भी वजूद
    है तन्हा सा|
    वाह ...बहुत खूब।

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  9. हाँ ,सुनते तो यही हैं पर पता नहीं उस पार न जाने क्या होगा !

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  10. है आत्मा बोझिल
    वहाँ जाऊं कैसे?
    है दिल कलुषित,
    यहाँ निभाऊँ कैसे?.... वाह !! बहुत खूब !!

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