सांस तो है चल रही,
पर महसूस कुछ ना हो रहा,
जिंदा हूँ या मृत हुई
एहसास ना कुछ हो रहा|
शब्द औ भावनाएं गुम सी
जड़,निर्मूल खुद को पा रही,
अस्तित्व तो स्थावर हुई,
पर स्वयं जंगम हुई जा रही|
सोचा खुद को मिट्टी का लोंदा
पर निकली मैं पक्का घड़ा,
कैसे बदलूं परिपक्वता ये
पाऊं कैसे स्वीकृत रूप बड़ा|
बिखरे,लूटे सम्मान की
समाधी एक बना डालूँ,
या चंद कतरों के वास्ते
नीलामी उनकी कर डालूँ |
कालजयी,इस काल को तुम
मौन सहमति दे रहे,
क्या करूँ,हे ईश!अब मैं
जो तुम भी निष्ठुर हो रहे|
स्वाति वल्लभा राज