Wednesday 6 August 2014

दिवा स्वप्न


सफ़ेद चादर में लपेटे हूँ 
अपनी हसरत,
सबसे खूबसूरत एहसास, 
जिसमें तुम निर्भीक हो 
खेल रही थी मैदान में ,
बिना डर के 
भर रही थी रंग अपने 
हर ख्वाब में, 
कुलाँचे मार रहे थे 
हर उमंग,
तुम खुश थी,
आज़ाद थी ,
बेख़ौफ़ थी ,
हैवानियत के नज़र से दूर थी 
बचपन,यौवन,बुढ़ापा 
सब जीया तुमने भरपूर 
और बेदाग़ रहा तुम्हारा शरीर,
पर जानती हूँ 
यह दिवा स्वप्न है 
माफ़ करना 
मेरी बच्ची इस ख़ौफ़ज़दा
ज़िंदगी के लिए । 

स्वाति वल्लभा राज 


Monday 4 August 2014

सपनों के दुर्गन्ध




मन के बगीचे में 
ठहर गया है स्वप्न पानी  सा, 
और हर पल घिरी हूँ अब 
अपने हीं सपनों के दुर्गन्ध में । 

खोदना होगा अब एक नाला 
अपने हैं मन में, 
ताकि ये ठहरा पानी निकल जाए 
और महसूस करूँ कुछ ताज़गी 
अपने हैं सपनों का तिरष्कार करके । 
स्मृतियों  के अवशेष में हीं 
ढूँढूँगी उनके निशाँ 
और बढ़ चलूंगी कुछ नयी उड़ान की ओर 
जीवन के कुरुक्षेत्र में । 

स्वाति वल्लभा  राज 

Monday 7 July 2014

तिरिया चरितर(त्रिया चरित्र)




भूखे बच्चे का पेट भरने को 
और बीमार पति के इलाज़ को 
जब जूठन मलने से काम न चला तो 
आखिर नीलाम कर दिया खुद को उसने । 

औरत के लिए उसके इज्जत के आगे भी 
होती है सिंदूर और कोख की अहमियत,
तभी तो नियति से मजबूर हो,
खुद का अस्तित्व खो 
बन जाती है -
''तिरिया चरितर ''?

स्वाति वल्लभा  राज 

Saturday 28 June 2014

नीच- जात ​




आज पंचायत जुटी थी 
फुलवा के लिए , 
नीच जात की  होकर
मंदिर में घुसने का दुःसाहस । 
आरोप था सिर्फ ,
प्रत्यारोप का तो सवाल  हीं नहीं, 
मैले कुचले चिथड़ों में 
खुद को ढाकने का विफल प्रयास करती । 
बड़ी बड़ी डबडबायी आँखों से 
आस लगाये,
मुखिया जी की ओर नज़र उठी 
पर तुरंत  नीचे हो लीं । 

कल दोपहर का माज़रा 
आँखों के सामने चल चित्र सा घूम गया
गन्ने  के खेत में जब मुखिया जी ने 
पीछे से दबोचा था उसे, 
मुंह पर हाथ  और गर्दन पर
हसियां रख जब अपने
पजामे का नाड़ा  ढीला किया था, 
और मर्दानगी साबित करने के  बाद 
कहा  था -
''फुलवा ! किसी को बताना नहीं,
मैं जात -पांत नहीं मानता 
जल्द हीं शादी करूंगा ''। 

गिद्ध की आँखों पर भी यकीं कर गयी फुलवा 
और आज मंदिर जा पहुंची 
ऊपर वाले को धन्यवाद कहने । 

तभी मुखिया जी के आवाज़ से 
तन्द्रा टूटी । 
''३ साल के लिए हुक्का -पानी बंद 
और पंचो  द्वारा समूहिक बलात्कार । 
ताकि फिर किसी  
छोटी जात  वालों की जुर्रत ना हो 
मंदिर को अपवित्र करने की ''। 

सन्न और स्तब्ध फुलवा 
तीन शब्दों में घिर गयी 
''छोटी जात , अपवित्र और बलात्कार ''। 


स्वाति वल्लभा राज 

Saturday 7 June 2014

छदम लिखती हूँ


छदम लिखती हूँ ,
कभी प्रपंच लिखती हूँ ,
लिखूं ना गर भाव , 
तभी कलंक लिखती हूँ ,

सोना उगल भी दें शब्द तो क्या 
भाव में जो पगे  नहीं ,
वो शब्द बेमोल हीं 
तृप्ति  में जो पके  नहीं ,


लूट लें वाह- वाही हीं पर 
अलंकृत, बेमोल शब्द 
गढ़ नहीं सकते ह्रदय में 
भाव सुन्दर और खरे । 

स्वाति वल्लभा  राज 

Thursday 29 May 2014

दर्द लिखती हूँ




जज्बों पर पड़े ठन्डे सर्द लिखती हूँ 
दर्द लिखती हूँ,
फलक पर दर्द लिखती हूँ ।

गुम हुए अपने शब्द लिखती  हूँ  
दर्द लिखती हूँ,
फलक पर दर्द लिखती हूँ ।

रूह पर पड़े, फैले गर्द  लिखती हूँ 
दर्द लिखती हूँ,
फलक पर दर्द लिखती हूँ ।

हर ख्वाइशों के रंग ज़र्द लिखती हूँ 
दर्द लिखती हूँ,
फलक पर दर्द लिखती हूँ ।

दूध को बेआबरू करता मर्द लिखती हूँ 
दर्द लिखती हूँ,
फलक पर दर्द लिखती हूँ ।

स्वाति वल्लभा राज 

Sunday 25 May 2014

काश! मैं ताड़ होती

जब भी होता आंधी  का सामना 
काश ताड़ के पत्तों की तरह 
मैं भी कट  जाती कई भागों में,
फिर जीवन के थपेड़ों के वेग 
मुझे भी नहीं गिरा पाते । 
जरा सा झंझोरकर बस 
निकल जाते मेरे बीच से,
मैं भी निर्भीक हो 
खड़ी  होती अटल,
निर्मूल ना होती 
जड़ी रहती जड़ों से । 

या फिर होती 
बांस के पत्तों सी,
आंधी जिधर मोड़ती 
मुड़  जाती मैं भी ,
थपेड़ों के चंवर में 
डोलती तो जरूर 
पर उखड़ती नहीं 
अपने वजूद से । 

पर मनसा वचसा  
हिना की पत्ती,
पिसती जाती,
अपने खून के रंग में 
रंगती जाती,
खुश्बू में 
डुबोती जाती 
अस्तित्व मगर,
निर्मूल औ अचेत हो । 

स्वाति वल्लभा राज 

Wednesday 14 May 2014

एहसासों की अस्थियां





अनजाने में हीं शब्द
धराशायी कर देते हैं
मन को,
भावनाएं हो जाती हैं कुंठित
और वेदना से भरा मन
आंसुओं में ढुलकाते
चला जाता है
एहसासों की अस्थियां ।
जरुरी नहीं हर शब्द
सुगढ़ और सुन्दर हों,
जरुरत है सिर्फ़
शब्दों को दूर रखने की
उस धारीपन से जो
भेंदते चले जाते हैं
प्रेम से पगे ह्रदय को
और कर देते हैं संज्ञाशून्य
आपके हर एहसास को ।
स्वाति वल्लभा राज

Wednesday 7 May 2014

अधूरे-अनाम रिश्ते




समेटे हुये हूँ 
तुम्हारा स्पर्श
अपनी हर साँस में,
मेरे हर ख्वाब
ज़िंदा हैं
तुम्हारे नाम पर,
हर वो लम्हे
जो जिये थे
तुम्हारे आगोश में
आज भी मुझे
ज़िंदा रखे हैं,
प्रेम वो नहीं
जो नाम का मोहताज हो,
सिंदूर की लाली हीं नहीं
गढ़ सकती हमारी कहानी ,
कुछ अधूरे-अनाम रिश्ते भी
सम्पूर्ण और पवित्र होते हैं ।
स्वाति वल्लभा राज

Saturday 19 April 2014

कुलबुलाता बुलबुला




तेरी यादों का बुलबुला
फूट जाता है
बेहयाई के खंजर से
जो भोंका था तुमने
मेरे हर स्वपन पर,
हर एहसास पर,
और आखिरकार 
मेरे अस्तित्व पर |

नश्तर की तरह उतर  गए 
वो शब्द,
''बिस्तर तक सब ले जायेंगे
घर में कोई नहीं''
हतप्रभ मैं खड़ी रह गयी
जैसे काठ मार गया हो |
मन कचोट गया
''दिया तो तुमने भी सिर्फ बिस्तर हीं
सिंदूर के नाम पर
घर कहाँ दिया''
पर शब्दों को सिल लिया,
और ताकत बना लिया 
उन्हीं शब्दों को,
भावनाओं और अनुभव के 
चाशनी में पकाकर,
मीठी कर डाली 
सारी कड़वाहट
और देखो 
आज मैं घर में हूँ
एक प्यारे से दिल में हूँ,
कोई  शिकवा नहीं.
फूटता है तो फुट जाये
कीचड़ में कुलबुलाता बुलबुला |

स्वाति वल्लभा राज

Sunday 13 April 2014

सहमे मेरे लव्ज़




सिसके,सहमे,घुटे से ​
बेजुबान लव्ज़ 
ठिठके खड़े होंठों के 
दरवाज़े पर 
लाचार, बेबस चाहते तो है 
कहे जाना, सुने जाना,
पर बेहतरी समझते रहे 
यूँ ठिठके रहना, 
चुप्पी की किल्ली चढ़ाये ,
क्या पता बाहर निकले 
और अस्मत लूट ले 
घात लगाये 
लव्ज़ों का कोई सौदागर 

स्वाति  वल्लभा राज

Monday 7 April 2014

मेरा गलीचा




मन के सफ़ेद गलीचे  में 
तुम तुरुप गए दो लाइन 
काले रंग से । 
तुरपाई चाहे सिल दे फटे को 
पर 
जोड़ नहीं पायेगा 
अंतर्मन के चीथड़े को,
और बदरंग भी तो कर गया 
मेरे सुन्दर गलीचे को । 
तुम्हे क्या लगा 
सजा दिया तुमने फिर  से 
और सज़ा माफ़,
पर हमारे बीच की खाई को 
पाटना नमुमकिन है । 
खोल दी मैंने आज वो तुरपाई 
और हो गयी मुक्त 
तुम्हारे बंधन से,
वक़्त भर देगा इस जख्म को भी 
और मेरा गलीचा होगा फिर से धवल । 

स्वाति वल्लभा राज