Saturday, 27 October 2012

पक्का घड़ा




सांस तो है चल रही,
पर महसूस कुछ ना हो रहा,
जिंदा हूँ या मृत हुई
एहसास ना कुछ हो रहा|

शब्द औ भावनाएं गुम सी
जड़,निर्मूल खुद को पा रही,
अस्तित्व तो स्थावर हुई,
पर स्वयं जंगम हुई जा  रही|

सोचा खुद को मिट्टी का लोंदा
पर निकली मैं  पक्का घड़ा,
कैसे बदलूं परिपक्वता ये
पाऊं कैसे स्वीकृत रूप बड़ा|

बिखरे,लूटे सम्मान की
समाधी एक   बना डालूँ,
या चंद  कतरों  के वास्ते
नीलामी उनकी कर डालूँ |


कालजयी,इस काल को तुम
मौन सहमति दे रहे,
क्या करूँ,हे ईश!अब मैं
जो तुम भी निष्ठुर हो रहे|

स्वाति वल्लभा राज

2 comments:

  1. कालजयी,इस काल को तुम
    मौन सहमति दे रहे,
    क्या करूँ,हे ईश!अब मैं
    जो तुम भी निष्ठुर हो रहे|

    पता नही वो क्या चाहता है………मनोभावो का सुन्दर चित्रण

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  2. सोचा खुद को मिट्टी का लोंदा
    पर निकली मैं पक्का घड़ा,
    कैसे बदलूं परिपक्वता ये
    पाऊं कैसे स्वीकृत रूप बड़ा .... अद्भुत सोच

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