रिश्तों में जितने गहरे गोते तुम लगाओ,
जरुरी नहीं हम भी डूबे उस तलक|
खुद को भूल,संग ले तुम बढे जहाँ,
जरुरी नहीं छू लें हम भी वो फलक|
पाते हो आज जो अपने हर हिस्से में
मुझे हीं हरसूं,
जरुरी क्या,पाऊं मैं भी हर जज्ब में
तुम्हे हरसूं|
ये तुम हो जो हो अधूरे,
मुझ बिन हर एहसास में |
ये मैं नहीं जो जुड़ जाऊं
हर बूंद क़ी प्यास में|
क्या मैं बुरा जो
जोड़ लिया है तुमने खुद को
मेरे हीं अस्तित्व से,
मेरा वजूद तुमसे है जुदा
क्या हो जो हम में प्यार हो.....
स्वाति वल्लभा राज
बहुत खूब
ReplyDeleteसादर
मन में कुछ द्वन्द्वात्मक सा चल रहा है और उसे बहुत खूबसूरती से लिखा है ... सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत कुछ बयाँ करती आपकी रचना और खुबसूरत शब्दों के संयोजन ने रोचक और आदर्श स्वरुप प्रदान किया है
ReplyDeleteसुन्दर सृजन , आभार .
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें , आभारी होऊंगा .
स्वाति जी नमस्कार...
ReplyDeleteआपके ब्लॉग 'अनीह ईषना' से कविता भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 5 अगस्त को 'तुम हम हो, मैं, मैं ही हूँ' शीर्षक के कविता को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
धन्यवाद
फीचर प्रभारी
नीति श्रीवास्तव
सच है जो उनके लिए है जरूरी नहीं अपने लिए भी हो ..
ReplyDeleteअच्छी रचना है ...
बहुत सुन्दर सृजन , आभार.
ReplyDeleteकृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर भी पधारने का कष्ट करें , आभारी होऊंगा