Friday, 3 August 2012

तुम हम हो;मैं,मैं हीं हूँ



रिश्तों में जितने गहरे गोते तुम लगाओ,
जरुरी नहीं हम भी डूबे उस तलक|
खुद को भूल,संग ले  तुम बढे जहाँ,
जरुरी नहीं छू लें हम भी वो फलक|


            पाते हो आज जो अपने हर हिस्से में 
                                                                             मुझे हीं हरसूं,
                                                                             जरुरी क्या,पाऊं मैं  भी हर  जज्ब में 
                                                                             तुम्हे हरसूं|

ये तुम हो जो हो अधूरे,
मुझ बिन हर  एहसास में |  
  

ये मैं नहीं जो जुड़ जाऊं 
हर बूंद क़ी प्यास में|

क्या मैं बुरा जो 
जोड़ लिया है तुमने खुद को
मेरे हीं अस्तित्व से,
मेरा वजूद तुमसे है जुदा
क्या हो जो हम में प्यार हो.....

स्वाति वल्लभा राज







7 comments:

  1. मन में कुछ द्वन्द्वात्मक सा चल रहा है और उसे बहुत खूबसूरती से लिखा है ... सुंदर रचना

    ReplyDelete
  2. बहुत कुछ बयाँ करती आपकी रचना और खुबसूरत शब्दों के संयोजन ने रोचक और आदर्श स्वरुप प्रदान किया है

    ReplyDelete
  3. सुन्दर सृजन , आभार .

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें , आभारी होऊंगा .

    ReplyDelete
  4. स्वाति जी नमस्कार...
    आपके ब्लॉग 'अनीह ईषना' से कविता भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 5 अगस्त को 'तुम हम हो, मैं, मैं ही हूँ' शीर्षक के कविता को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
    धन्यवाद
    फीचर प्रभारी
    नीति श्रीवास्तव

    ReplyDelete
  5. सच है जो उनके लिए है जरूरी नहीं अपने लिए भी हो ..
    अच्छी रचना है ...

    ReplyDelete
  6. बहुत सुन्दर सृजन , आभार.

    कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर भी पधारने का कष्ट करें , आभारी होऊंगा

    ReplyDelete