आधुनिकता और पाश्चात्य सभ्यता के अंधाधुंध आपा -धापी में आज भी कई भारतीय पर्व और रीती-रिवाज़ हैं जो हमें अपने मूल और संस्कृति से जोड़ें हुए हैं|ऐसे हीं पर्वों में महापर्व छठ अग्रणी और शिरोधार्य है|यह पर्व सूर्य देव की उपासना का है और सर्व-मंगल कामना पूर्ति हेतु है|इस पर्व को स्त्री-पुरुष दोनों अपनी श्रद्धानुसार रखते हैं|वैसे तो यह पर्व उत्तर भारतीय हिंदुओं द्वारा हीं विशेष कर मनाया जाता है मगर दूसरे धर्मों में भी इसकी गूढ़ आस्था देखी गयी है| आस्था का यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जता है|चैत्र और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष के षष्ठी तिथि को इस पर्व को मनाया जाता है||लोक कथा अनुसार छठ मैया और सूर्य देव के बीच भाई-बहन का सम्बन्ध है और सर्व कामना सिद्धि हेतु माँ सूर्य देव की अराधना करती है|खरना के संध्या में भगवती षष्ठी अपने मायका आती हैं|
इस पर्व का वैज्ञानिक महत्व भी है|इस दिन विचित्र खगौलीय स्थिति (चंद्रमा और पृथ्वीके भ्रमण तलोंकी सम रेखाके दोनों छोरोंपर)होती है|जिसके प्रभाव से सूर्यकी पराबैगनी किरणें कुछ चंद्र सतहसे परावर्तित तथा कुछ गोलीय अपवर्तित होती हुई, पृथ्वीपर पुन: सामान्यसे अधिक मात्रामें पहुंच जाती हैं । वायुमंडलके स्तरोंसे आवर्तित होती हुई, सूर्यास्त तथा सूर्योदयको यह और भी सघन हो जाती है । वायु मंडल के शुद्धता हेतु इस पर्व के धुप-बत्ती का बहुत योगदान होता है|सूर्य देव की उपासना से उनकी हानि कारक किरणों के प्रभाव से मुक्ति की कामना की जाती है|
पौराणिक और लोक कथाएँ
छठ पूजा की परंपरा और उसके महत्व का प्रतिपादन करने वाली अनेक पौराणिक और लोक कथाएँ प्रचलित हैं।अथर्ववेद में भी इसके महात्म्य का वर्णन है|
रामायण से
एक मान्यता के अनुसार लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया और सूर्यदेव की आराधना की। सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर सूर्यदेव से आशिर्वाद प्राप्त कियाथा।
महाभारत से
एक अन्य मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले सूर्य पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में ख़ड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है।
कुछ कथाओं में पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा भी सूर्य की पूजा करने का उल्लेख है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थीं।
पुराणों से
एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी|
विधि
यह पर्व चार दिवसीय है|पहले दिन नहाय-खाय से व्रत का प्रारंभ होता है|इस दिन व्रती सेंधा नमक में कद्दू और अरवा चावल का सेवन करते हैं|दूसरे दिन,दिन भर का उपवास रख कर रात में खरना का प्रावधान है|साठी के चावल को गन्ने के रस में गुड़ डालकर पकाते है|फिर दूध अदरक डाल कर इसे महाप्रसाद बनाते है|व्रती इस रसियाव के साथ घी में चिपुडी रोटी का सेवन करते है|तीसरे दिन दिन भर उपवास रख कर अस्ताचल गामी सूर्य को दूध और मौसमी फलों से अर्घ्य देते है|घाट पर नदी या पोखरे में कमर तक पानी में डूबकर अर्घ्य देते हैं|रात्री में मन्नत अनुसार कोसी भरते है|५ या ७ गन्ने को लाल कपडे से लपेट कर खड़ा करते हैं|इसके अंदर अल्पना बनाते है है और उसके ऊपर फल,पूरी खजूर अत्यादी के टोकरे पर दिये रख कर पूजन करते हैं|चौथे दिन उदय होते सूर्य को अर्घ्य देकर पूजन की समाप्ति होती है|
स्वाति वल्लभा राज