जिस्म को नोचा,रूह खसोटी
तब भी चैन नहीं आया |
पुरुषार्थ साबित करने का
राह ना दूजा तुम्हे भाया ?
संयम,हया क्यों मेरा गहना
जो तुम्हें नहीं उसका सम्मान,
कामुक तुम अमर्यादित
हमे क्यों देते फिर हो ज्ञान?
दूध ने सींचा जिन पौधों को
सृष्टि को हीं लील रहे,
जीवन दायिनी उस अबला का
स्वत्व हंसुवे से छील रहे|
लाज नहीं तुमको हे निर्लज्ज
दुष्कर्मों की लाज बचाते,
अट्टहास लगाते ऊपर से
हमें चले सहुर सिखाने |
गिध्ह भी नोचते हैं मुर्दे को
अपने भूख की शांति को|
तुम्हे कौन सी भूख बिलखाती
जो तारते धर्म की कांति को |
याद रखो हम अबला तब तक
जब तक क्षमा का गहना लादे,
जिस पल गहना फेंक दिया
हो जाएँगे चंडी माते |
तीनों लोक पड़ेंगे फिर कम
खुद का मुँह छिपाने को|
तब देखेंगे पुरषार्थ का दम
नारी को नीच जताने को |
स्वाति वल्लभा राज
भीतर तक दहला गयी आपकी ये अभिव्यक्ति....
ReplyDeleteअनु
बहुत ही सुन्दर पोस्ट है ।
ReplyDeleteachchi likhi......
ReplyDeletehttp://www.parikalpnaa.com/2013/01/6http://www.parikalpnaa.com/2013/01/6.html.html
ReplyDeleteबहुत जोरदार रचना. समाज में हर किसी को आत्मचिंतन करने की जरूरत है.
ReplyDeleteकल 11/12/2012को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं .... !!
ReplyDeleteआपके सुझावों का स्वागत है .... !!
धन्यवाद .... !!
दिल को अंदर तक दहला गयी...
ReplyDelete~सादर!!!
क्या बात क्या बात क्या बात और सबसे बेहतरीन आपके जज़्बात | इतना रोष लाज़मी है | इससे बनाये रखें | बहुत सुन्दर अभीव्यक्ति | झकझोर कर रख दिया | आभार |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
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