Monday, 10 September 2012

डर लगता है



शाम के अंधेरों से डर लगता है,
दिन के उजालों में डर  लगता है
ऐ ज़िन्दगी! क्या तू हीं है ये,
तेरे हर इशारों से डर लगता है|

रात की स्याह को  
अजीब  तिश्नगी की प्यास है,
दिन के उजियारे,
आजिज़ आरजुओं की लाश है,

सुलगते  अरमान भी है काफ़िर हुए
ऐ कुदरत! तेरे  काबू की दरकरार है|

दिल की लगी क्या कहें,अब 
दिल्लगी से भी  डर लगता है|
ऐ इश्क!हजारों रंग हों मुबारक चाहे,
खूनी लाल ख्वाइशों  से डर लगता है|

स्वाति वल्लभा राज



4 comments:

  1. bahut hi sundar rachna hai swati ji aur andaj bhi badhiya hai

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  2. वाह क्या बात है बहुत खूबसूरत
    अरुन =www.arunsblog.in

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  3. वाह ! कमाल लिखा है..

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