कल की गुलामी अंग्रेजों की थी,
पर आज तो हम आजाद हैं ना?
डर,आरजकता,लोभ,स्वार्थ अब,
हर कोने में आबाद है|
बर्बर,डच,मुग़ल,तुगलक,
तो एक के बाद एक थे आए|
अब तो आलम ये है प्यारे,
सारी नीचता एकजुट है छाये|
कल हीरे लूटे,मंदिर लूटे,
अस्मत की चादर छीनते आए,
आज इनमे से आज कौन बचा
विश्वास की लूट चार चाँद लगाए|
गुलामी की मोटी जंजीरें,
पहले से भी कसी हुई,
चेहरे और तरीके बदले,
नीयत वहीँ पर फसी हुई |
मत जगना,तुम हो 'आम नागरिक'
कोने मे दुबके सोये रहना,
किसी-किसी मौको पे कभी,
अंगडाई लेकर फिर सो जाना|
हम गुलाम कल थे आज भी है
बस मौके और हालात हैं बदले|
फितरत तो अब भी रक्त-चूषक
शोषक के अंदाज़ हैं बदले|
स्वाति वल्लभा राज
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति आज रविवार (18-08-2013) को "ब्लॉग प्रसारण- 89" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.
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ReplyDeleteस्वाति जी आपने आज की चिंता को और भी गहरा कर चिंतन को और भी कस दिया अभिव्यक्ति सुन्दर नहीं यथार्थ परक है बधाई नहीं कहूँगा चिंतन को जरी रखें शुभकामनाएं आप मेरे रीडिंग लिस्ट में शामिल हैं
ReplyDeletebahut behtareen rachna... dil ko chhune wali........
ReplyDeleteसच को बयान करती रचना .... रक्षाबन्धन की शुभकामनायें !
ReplyDeleteबेहद सुन्दर रचना है स्वति… शानदार |
ReplyDeleteसुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति.
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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