Tuesday, 29 May 2012

बदल जाते हैं

 नयी-पुरानी हल चल के लिनक्स खंगालते हुए ''अमरेन्द्र शुक्ल अमर'' जी की रचना पढ़ रही थी...टिपण्णी में अनायास हीं दो पंक्तियाँ  बन गई...उसे हीं आगे बढाकर लिखने का प्रयास किया है...
 


कभी हम कभी तुम तो कभी हालात बदल जाते हैं...
आकाँक्षाओं के तले हमारे जज्बात बदल जाते हैं....
यायावर इहाओं कि क्या बिसात अचल रहने की
ज़िन्दगी के थपेड़ों में तो माहताब बदल जाते हैं|
                    
   
ज़ख़्मी जज्बों की मरहम-पट्टी करते करते 
कई बरसों के सुनहले दिन रात  बदल जाते है...
हर मौसम में बदले,हर क्षण मोहताज़ रिश्ते;
बेबसी तो कभी उन्माद में  अंदाज़ बदल  जाते हैं...

स्वाति वल्लभा राज....

Sunday, 27 May 2012

वायरस



क्या वाकई हममें जीवन है या
वायरस सा गुण रखते हैं?



जीवित हैं हम, जो भावों से भरें
और भाव;स्वार्थ बिन डसते हैं|
निर्जीव पड़े स्व हित बिना
जड़ की श्रेणी में पलते हैं|


स्वार्थ,छल,मद,लालच सरीखे
पोषक तत्वों से फलते हैं|
अपनों से हीं प्रतियोगिता
उत्थान पे उनके जलते हैं|

 

अवसरवादी जो राह मिलें
उस पर अथक हम चलते हैं|
जीवन माने खुद में हम जब,
स्वार्थ सिद्धि से सधते हैं|

 
सजीव और निर्जीवों का
पुनः हो एक अवलोकन|
परखा जाये मानव को फिर
हैं मृत या उनमे है जीवन|


या फिर वायरसों सा अधिकृत
नूतन वर्ग बनाया जाये|
जिसमे मानव को नए श्रेणी
‘’अवसरवाद”में सजाया जाये|

स्वाति वल्लभा राज


Friday, 25 May 2012

"ह्रदय तारों का स्पंदन"

साहित्य प्रेमी संघ के तत्वाधान में प्रकाशित "ह्रदय तारों का स्पंदन"'का विमोचन हुआ है|मैं भी इस संकलन का हिस्सा हूँ|इसमें ३० कवियों कि कृति शामिल है|
इस लिंक पर आकर अपना बहुमूल्य मत प्रकट कर अनुगृहित करें|
आभार,
स्वाति वल्लभा राज

Thursday, 24 May 2012

माहिया


मुझे मात्राओं का उतना ज्ञान नहीं है|फिर भी नयी विधाओं को सिखने कि लालसा है|कॉलेज मे तो इतना समय नहीं मिल पाता की कुछ नया सीख पाऊं|गर्मियों की छुट्टी का उपयोग करना चाहती हूँ|अगर कोई त्रुटि हो तो जरुर बताइयेगा|अगर कोई ऐसा लिंक जो मात्राओं को समझने मे मेरी मदद करे,कृप्या जरुर बताइयेगा|

"महिया" पंजाब का प्रसिद्द लोकगीत है। माहिया का मूल स्वर प्यार मुहब्बत और मीठी नोंक झोंक है ।इसमें श्रृंगार रस के दोनों पक्ष संयोग और वियोग रहते हैं लेकिन अब अन्य रस भी शामिल किये जाने लगे हैं। इस छन्द में पहली और तीसरी पंक्ति  में 12 -12 मात्राएँ तथा दूसरी पंक्ति में 10 मात्राएँ होती हैं । पहली और तीसरी पंक्ति  तुकान्त होती है । 




1.रिमझिम बरसे फुहार
फूल खिले, महके
अमिया की है बहार|


2.न स्याह श्वेत का मेल
हर पल तुम बिन मैं
जलूँ बाती,बिन तेल|

स्वाति वल्लभा राज

Wednesday, 23 May 2012

दर्शन अभिलाषा (तांका)

मैंने तांका लिखने कि कोशिश की है| यह जापानी काव्य शैली है| १०० साल से भी ज्यादा पुरानी है| यह  विधा ९वीं शताब्दी  से १२ वीं शताब्दी के दौरान काफी प्रचलित हुई| हाइकु का  उद्भव इसी से हुआ है| इसकी संरचना ५+७+५+७+७ वर्णों की होती है|आप सभी का मार्ग-दर्शन प्रोत्साहन देगा|






मुरली वाले
गिरधर नागर 
दर्शन ईहा 
लालायित नयन 
प्रेम परागा मन|


पंथ निहारूं
खुद को समझाऊं
बंशी बजैया 
श्याम सलोना मुख 
दर्शन में हीं सुख|

स्वाति वल्लभा राज

Tuesday, 22 May 2012

हाइकु

मेरी पहली कोशिश है,हाइकु लिखने  की |आप सब का मार्ग-दर्शन अपेक्षित है|

विरह 
दंश

सुबकता यौवन
मन हताश|

मिलन राग
छेड़े बावरा मन
पिया न पास|

प्रेम परीक्षा 
उर्मिला सी  प्रतीक्षा 
ढृढ़ जिगीषा|

स्वाति वल्लभा राज

अहम् ब्रम्ह अस्मि.....



आज परम पिता परमेश्वर ,उस असीम सामर्थ वाले शक्ति-पुंज के आगे मैं नत-मस्तक हूँ|इसलिए नहीं कि उसने मेरी कोई लौटरी लगा दी या कोई अलौकिक शक्ति दे दी या ब्रम्ह ज्ञान की प्राप्ति करा दी|मैं नत-मस्तक हूँ क्योंकि उसने एक बार फिर अपने अस्तित्व के मान के लिए मानवीय भावनाओं को ताख पर रखकर,ये आभास दिलाया कि “मानव तू छद्म है...मैं अपार हूँ...स्वीकारो इस सत्य को...झुकते रहो मेरे सामने मगर मैं करूँगा वही जो मैं चाहूँगा....तुम तो माध्यम मात्र हो..कर्ता तो मैं हूँ..मैं ब्रम्ह हूँ...”

आप सोच रहे होंगे कि मुझे अचानक ऐसे ख्याल क्यों आने लगे...मैं नास्तिक नहीं हूँ...और नाहीं मुझे किसी जाति विशेष से लगाव है जिसके ईश प्रचार मे मैं संलग्न होना चाहती हूँ...मैं तो बस जीवन के कटु सत्य से रु- ब-रु होकर यह सोचने पर बाध्य हो गई की हर कदम पर ऊपर वाला अपने शक्ति का परिचय क्यों कराता है...सत्कर्मों मे कराये तो सही भी है,परन्तु गलत कामों को भी फलीभूत कर क्या सन्देश देना चाहता है?

अगर संसार मे दो ताकतें हैं-बुरी और भली तो बुरी ताकत की जीत क्यों बढती जा रही है?या अगर उसकी मर्ज़ी के बगैर पत्ता  भी नहीं हिल सकता तो फिर  क्या बुरे कर्म भी उसी की देख-रेख मे है?या फिर खुद को सर्व-शक्तिमान साबित करने का ये उसका कोई तरीका है?
नहीं पता सत्य क्या है|सत्य की खोज मे क्या मैं नचिकेता बन जाऊँ या फिर सिद्धार्थ की तरह बुद्ध बन जाऊँ या फिर सवालों के भंवर मे फंस कर डूब जाऊँ?

मेरे करीबी कहते हैं की मैं सवाल बहुत पूछती हूँ और मेरे देखने का नजरिया अलग है...हो सकता है ऐसा हो..ये भी हो सकता है की मैं कई जगहों पर गलत सवाल पूंछू...मगर कही न कहीं कुछ न कुछ तो दम हैं हीं ऐसे सवालों मे...हमारा वश सिर्फ कर्म पर हीं क्यों है...फल पर क्यों नहीं...ठीक है दुष्कर्मों के फल का खाका वही देखें मगर सत्कर्मों के फल के कुछ सीमा उस मनुष्य को दें ताकि उसे भी अपने अस्तित्व पर मान हो...



उद्विग्न मन को हम सिर्फ यह कह कर शांत नहीं कर सकते कि हमें बंधन-मुक्त हो कर्म करना है...हम मानव हैं तो मानवीय गुणों से ऊपर नहीं उठ सकते...ईश्वर कि ताकत को नमन तो है परन्तु जब-जब उसके न्याय करने का समीकरण असंतुलित होगा,तब-तब वो सवालों के कटघरे मे भी है....

स्वाति वल्लभा राज

Friday, 18 May 2012

चलें उस ओर अब हम



आँखों का रोना तो सब समझते नहीं,
दिल का रोना का क्या ख़ाक समझेंगे?
थक गयी आँखें,दिल भी रो-रोकर अब
चलो पत्थरों को हीं हमराज  बनाएं|
गर पत्थरों ने हीं ये मुकाम बना लिया दिल में 
फिर इंसानों कि बस्ती में हमारा क्या काम?
इंसानों के आगे सर पटक कर देख लिया बहुत
देखते हैं पत्थरों  के साथ का भी अंजाम|
कूंच करें ये कारवां हम पत्थर दिल 
इंसानों की महफ़िल से उस ओर अभी|
जहाँ मौन मूक पत्थर हीं साथ दें
और इंसानी फितरत से दूर हों ये ज़िन्दगी........

स्वाति वल्लभा राज.....




Thursday, 17 May 2012

मुझ जैसा पागल बन जाओ...


तुमने ऐसा क्यों सोचा?
तुमने वैसा क्यों किया?
लोगों को हर बार तुम्हे अपनी बात क्यों समझानी  पड़ती है?तुम इतना अलग क्यों सोचती हो?क्या जिंदगी ऐसे  चलती है?
कितनी गलतियाँ करोगी और तुम?अक्ल कब आएगी तुम्हे?समझती क्यों नहीं?क्या वाकई मे तुम ऐसी हो?

कितने सारे सवाल और सबका सिर्फ एक जवाब-मुझे नहीं समझ आती दुनियादारी| नफा नुकसान के तराजू मे मैं हर बात नहीं तौल पाती|दम घुटने लगता है मेरा|तो क्या वाकई मुझे इस दुनिया मे रहने का हक़ नहीं है?
अगर मैं बाकि दुनिया कि तरह नहीं सोच पाती  तो मैं क्या करूँ?तुम मुझसे बदलने कि उम्मीद रखते हो ना?
थोड़ा नफे नुकसान से ऊपर उठकर तुम हीं क्यों नहीं बदल जाते?एक बार इन सारे सवालों से ऊपर उठकर सिर्फ अपने दिल कि क्यों नहीं सुन लेते|हम सब कुछ नहीं पा सकते हैं कभी|सब कुछ समेटने के चक्कर मे आधार हीन  होना तो अक्लमंदी नहीं न?
सिर्फ एक बार ऑंखें बंद करके बिना ये सोचे कि क्या पाएँगे और क्या खोयेंगे,सिर्फ खुद के एहसास पर ऐतबार कर के आगे बढ़ो|जिंदगी भर ऊपर वाला तुम्हारा साथ देगा और नुकसान तो कभी नहीं देगा|

मगर तुम ऐसा नहीं सोच सकते|दुनियादारी कि पट्टी आँखों मे बंधकर तो कभी नहीं|चित्त तब शांत होता है जब आकांक्षाएं शांत होती हैं|और ये अभिलाषाएँ यूँ हीं शांत नहीं होती|
जिस दिन तुम सिर्फ अपने भावना कि पवित्रता पर भरोसा कर लोगे,तुम्हे और कुछ करने कि जरुरत नहीं होगी|जीवन का उदेश्य तो सिर्फ एक हीं होता है|बाद बाकि तो माध्यम मात्र हैं|

एक बार मेरी तरह खुद को भूल कर सिर्फ उस भावना कि शक्ति को पहचान लो जो सर्व-शक्तिमान है|जिसने ममता,प्रेम,त्याग.वात्सल्य और न जाने कितने रूपों मे चिर काल से तीनों लोक पर स्वामित्व बनाये रखा है,उस रूप पर विश्वास कर आगे बढ़ो|ना तो कोई सवाल मन को परेशां करेगा और न मन उद्विग्न होगा|
बस एक बार मुझ जैसा पागल बन जाओ|सिर्फ एक बार|

स्वाति वल्लभा राज

Thursday, 3 May 2012

संस्कार और विश्वास


आज कि युवा पीढ़ी और हमारे पिछले पीढ़ियों के बीच बहुत हीं मतभेद आ गए हैं..ऐसे बहुत से पहलु हैं जो हम नहीं समझ पाते और उनकी ऐसी  बहुत सी बातें हैं जो हमे समझ नहीं आती...कुछ ऐसी भी बातें है जो दोनों तरफ से समझी तो जाती हैं,मगर मानी नहीं जाती या सिर्फ मान ली जाती हैं समझी नहीं जाती...ऐसे हीं अनगिनत सवालों  में एक सवाल जो विकराल मुहँ बाँए दोनों पीढ़ियों के सामने वक्त-बे-वक्त खड़ा हो जाता है-“विश्वास का”...माँ-बाप के दिए हुए संस्कारों का सम्मान जीवन भर करते  हैं,मन और आत्मा को कुकर्मों से बचाये हुए रखते हैं..हम तब तक बहुत हीं संस्कारी और भले मानस कि श्रेणी मे रहते है...परन्तु जैसे हीं प्यार का एहसास हुआ,हम नालायक,पाजी और न जाने क्या-क्या बन जाते है...माँ-बाप का विश्वास तोड़ देते हैं,अपने संस्कार भूल जाते हैं...क्या वाकई में ऐसा है?अब तक हमारा संतुलित जीवन,मन पे बिठाये पहरे,हर कदम फूंक-फूंक कर रखना,ये सब बेमायने हो जाते हैं?क्या संस्कार और विश्वास का एक हीं तराजू होता है की बच्चे अपने मर्जी से अपने जीवन साथी ना चुने?लड़का या लड़की चाहे जो मर्ज़ी करें ज्यादा फर्क नहीं पड़ता,मगर अपने प्यार का पक्ष रखें तो गलत ठहरा दिए जातें है...
ऐसा नहीं है की दोष सिर्फ पिछली पीढ़ी का है..ऐसे मामलों मे हम भी कम नहीं है...हम मे से ऐसे कितने जाने होंगे जो अपने प्यार को लेकर आगे सिर्फ इसलिए नहीं बढ़ पाते क्योंकि हमें लगता है की हम अपने माँ -बाप को धोखा दे रहे है...और घर पर अगर बात रख भी दी और घर वालों का दबाव बढ़ा,माँ-बाप बीमार हो गए या कोई भी विपरीत परिस्थिति आई तो कदम पीछे...और जवाब क्या देते हैं हम,"'क्या करें जब माँ-बाप बहुत करते हैं तो हमें उनका दिल नहीं दुखाना चाहिए"...ऐसा सोचना अच्छी बात है...उनके मान को सम्मान देना और भी अच्छी बात है...पर क्या ये न्यायोचित है?
क्या हम इतनी छोटी बात नहीं समझ सकते की इन सब का संस्कारों और विश्वास से कुछ लेना देना नहीं अगर वाकई मे हमारी पसंद और हमारा प्यार हर कसौटी पर उत्तम है तो...क्या हमें मिले संस्कारों की कसौटी यही होनी चाहिए?क्या हमारे प्यार की कसौटी यही होनी चाहिए? या फिर हमें अपने प्यार, संस्कार और विश्वास को नया आयाम देना चाहिए जो इन सबमें ऊपर हो...
स्वाति वल्लभा राज

मेरी इबादत




पढ़ें तो बहुतेरे हम भी,
तेरी आँखों से बेहतर कोई किताब नहीं....
मयखाने में बीती रातें मगर,
तेरी बातों से नशीली शराब नहीं.....



जिंदगी ने कई सवाल किये
तुझसे खूबसूरत  कोई जवाब नहीं....
हर जख्म भरे भरे से हैं
खुशियों पर भी कोई नकाब नहीं......



पाक ,खुदा की इबादत सी
तेरी सादगी का कोई हिसाब नहीं....
कुरान की आयतों का  सुकून,
तेरी शख्सियत जैसा आदाब नहीं......

स्वाति वल्लभा राज....