Friday, 18 May 2012

चलें उस ओर अब हम



आँखों का रोना तो सब समझते नहीं,
दिल का रोना का क्या ख़ाक समझेंगे?
थक गयी आँखें,दिल भी रो-रोकर अब
चलो पत्थरों को हीं हमराज  बनाएं|
गर पत्थरों ने हीं ये मुकाम बना लिया दिल में 
फिर इंसानों कि बस्ती में हमारा क्या काम?
इंसानों के आगे सर पटक कर देख लिया बहुत
देखते हैं पत्थरों  के साथ का भी अंजाम|
कूंच करें ये कारवां हम पत्थर दिल 
इंसानों की महफ़िल से उस ओर अभी|
जहाँ मौन मूक पत्थर हीं साथ दें
और इंसानी फितरत से दूर हों ये ज़िन्दगी........

स्वाति वल्लभा राज.....




9 comments:

  1. सुंदर "कठोर" रचना

    :-(

    अनु

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  2. शायद पत्थर के सीने में दिल हो ...सुंदर रचना

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  3. आँखों का रोना तो सब समझते नहीं,
    दिल का रोना का क्या ख़ाक समझेंगे?
    खरी खरी बात

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  4. बहुत ही बढ़िया।

    सादर

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  5. बेहतरीन भाव संयोजन ।

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  6. सुन्दर गहन अभिव्यक्ति ....

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  7. थक गयी आँखें,दिल भी रो-रोकर अब
    चलो पत्थरों को हीं हमराज बनाएं|
    .
    .
    शायद एक नूतन अंदाज़ होगा
    जब पत्थर दिल का हमराज होगा

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  8. लगता है बहुतिकता के इस दौर दौरा में संवेदना की धारा सूख से गई है।

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