आज कि
युवा पीढ़ी और हमारे पिछले पीढ़ियों के बीच बहुत हीं मतभेद आ गए हैं..ऐसे बहुत से
पहलु हैं जो हम नहीं समझ पाते और उनकी ऐसी
बहुत सी बातें हैं जो हमे समझ नहीं आती...कुछ ऐसी भी बातें है जो दोनों तरफ
से समझी तो जाती हैं,मगर मानी नहीं जाती या सिर्फ मान ली जाती हैं समझी नहीं
जाती...ऐसे हीं अनगिनत सवालों में एक सवाल जो विकराल मुहँ बाँए दोनों पीढ़ियों के
सामने वक्त-बे-वक्त खड़ा हो जाता है-“विश्वास का”...माँ-बाप के दिए हुए संस्कारों
का सम्मान जीवन भर करते हैं,मन और आत्मा को कुकर्मों से बचाये हुए रखते हैं..हम तब
तक बहुत हीं संस्कारी और भले मानस कि श्रेणी मे रहते है...परन्तु जैसे हीं प्यार
का एहसास हुआ,हम नालायक,पाजी और न जाने क्या-क्या बन जाते है...माँ-बाप का विश्वास
तोड़ देते हैं,अपने संस्कार भूल जाते हैं...क्या वाकई में ऐसा है?अब तक हमारा
संतुलित जीवन,मन पे बिठाये पहरे,हर कदम फूंक-फूंक कर रखना,ये सब बेमायने हो जाते
हैं?क्या संस्कार और विश्वास का एक हीं तराजू होता है की बच्चे अपने मर्जी से अपने
जीवन साथी ना चुने?लड़का या लड़की चाहे जो मर्ज़ी करें ज्यादा फर्क नहीं पड़ता,मगर
अपने प्यार का पक्ष रखें तो गलत ठहरा दिए जातें है...
ऐसा
नहीं है की दोष सिर्फ पिछली पीढ़ी का है..ऐसे मामलों मे हम भी कम नहीं है...हम मे
से ऐसे कितने जाने होंगे जो अपने प्यार को लेकर आगे सिर्फ इसलिए नहीं बढ़ पाते
क्योंकि हमें लगता है की हम अपने माँ -बाप को धोखा दे रहे है...और घर पर अगर बात रख
भी दी और घर वालों का दबाव बढ़ा,माँ-बाप बीमार हो गए या कोई भी विपरीत परिस्थिति आई
तो कदम पीछे...और जवाब क्या देते हैं हम,"'क्या करें जब माँ-बाप बहुत करते हैं तो
हमें उनका दिल नहीं दुखाना चाहिए"...ऐसा सोचना अच्छी बात है...उनके मान को सम्मान
देना और भी अच्छी बात है...पर क्या ये न्यायोचित है?
क्या
हम इतनी छोटी बात नहीं समझ सकते की इन सब का संस्कारों और विश्वास से कुछ लेना
देना नहीं अगर वाकई मे हमारी पसंद और हमारा प्यार हर कसौटी पर उत्तम है तो...क्या हमें
मिले संस्कारों की कसौटी यही होनी चाहिए?क्या हमारे प्यार की कसौटी यही होनी चाहिए? या फिर
हमें अपने प्यार, संस्कार और विश्वास को नया आयाम देना चाहिए जो इन सबमें ऊपर
हो...
स्वाति
वल्लभा राज
vichaaniy post hae yah jaroor hae ki parivartan aaya hae par pyaar se ise saheja jaye to aek sukhd parivartan ka aabhas hoga .sarthak aalekh hae .aabhar.
ReplyDelete"क्या हमारे प्यार की कसौटी यही होनी चाहिए? या फिर हमें अपने प्यार, संस्कार और विश्वास को नया आयाम देना चाहिए जो इन सबमें ऊपर हो..."
ReplyDeleteनिश्चित तौर पर इस दिशा मे गंभीरता से सोचना होगा।
सादर
*क्या संस्कार और विश्वास का एक हीं तराजू होता है की बच्चे अपने मर्जी से अपने जीवन साथी ना चुने?*
ReplyDeleteबिलकुल नहीं ..... !! संस्कार और विश्वास माता-पिता के प्रति निबाहे गए बहुत सारे कर्तव्य में झलकतें .... !!
प्यार तो जिन्दगी भर का निज़ी मामला है .... जीवन-साथी चुनने का हक होता है .... अधिकार और कर्तव्य दोनों मिलने चाहिए .... !!
कया ही अच्छा हो कि प्यार की निजता को भी संस्कार ही माना जाये
ReplyDeleteविचारणीय...
ReplyDeleteफैसले निज हो सकते हैं .... माता - पिता के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए ...
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति।
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