चातक की प्यास बुझाती स्वाति
स्वयं आज प्यासी भटकती है,
जग को मोती का दान दिये
खुद आभा को तरसती है|
दिन मास ताकता जो चातक,
हर पल बाट जो जोहे है,
एक बूंद कंठ से लगते हीं
उस बूंद को मन से मोहे है|
दिन मास बरस क्या युग बीते
ये बूंद आप हीं प्यासी है|
प्यासों को शीतल करे, वो
आप दहक की दासी है|
बेमोल पड़े सीप में जो
एक अंश का स्पर्श होए
आभा मंडित मोती का
सागर में फिर उद्भव होए|
धीरजता का परिचय दिये
जो मोती का निर्माण किये
सौ टुकड़ों में बिखरी हुई
आप पर हर इल्ज़ाम लिये|
स्वाति वल्लभा राज
बहुत ही सुन्दर ।
ReplyDeleteचातक की प्यास बुझाती स्वाति
स्वयं आज प्यासी भटकती है,
जग को मोती का दान दिये
खुद आभा को तरसती है|
धन्यवाद इमरान जी
Deleteबहुत खूबसूरती से मन की कसक को कह रही है रचना ।
ReplyDeleteधन्यवाद :)
Deleteबेहतरीन
ReplyDeleteसादर
ReplyDeleteकल 23/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
धीरजता का परिचय दिये
ReplyDeleteजो मोती का निर्माण किये
सौ टुकड़ों में बिखरी हुई
आप पर हर इल्ज़ाम लिये|
सुंदर रचना के लिए बधाई स्वाति जी
:)
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