तेरी यादों का बुलबुला
फूट जाता है
बेहयाई के खंजर से
जो भोंका था तुमने
मेरे हर स्वपन पर,
हर एहसास पर,
और आखिरकार
मेरे अस्तित्व पर |
नश्तर की तरह उतर गए
वो शब्द,
''बिस्तर तक सब ले जायेंगे
घर में कोई नहीं''
हतप्रभ मैं खड़ी रह गयी
जैसे काठ मार गया हो |
मन कचोट गया
''दिया तो तुमने भी सिर्फ बिस्तर हीं
सिंदूर के नाम पर
घर कहाँ दिया''
पर शब्दों को सिल लिया,
और ताकत बना लिया
उन्हीं शब्दों को,
भावनाओं और अनुभव के
चाशनी में पकाकर,
मीठी कर डाली
सारी कड़वाहट
और देखो
आज मैं घर में हूँ
एक प्यारे से दिल में हूँ,
कोई शिकवा नहीं.
फूटता है तो फुट जाये
कीचड़ में कुलबुलाता बुलबुला |
स्वाति वल्लभा राज
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