जब भी होता आंधी का सामना
काश ताड़ के पत्तों की तरह
मैं भी कट जाती कई भागों में,
फिर जीवन के थपेड़ों के वेग
मुझे भी नहीं गिरा पाते ।
जरा सा झंझोरकर बस
निकल जाते मेरे बीच से,
मैं भी निर्भीक हो
खड़ी होती अटल,
निर्मूल ना होती
जड़ी रहती जड़ों से ।
या फिर होती
बांस के पत्तों सी,
आंधी जिधर मोड़ती
मुड़ जाती मैं भी ,
थपेड़ों के चंवर में
डोलती तो जरूर
पर उखड़ती नहीं
अपने वजूद से ।
पर मनसा वचसा
हिना की पत्ती,
पिसती जाती,
अपने खून के रंग में
रंगती जाती,
खुश्बू में
डुबोती जाती
अस्तित्व मगर,
निर्मूल औ अचेत हो ।
स्वाति वल्लभा राज
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