Sunday, 25 May 2014

काश! मैं ताड़ होती

जब भी होता आंधी  का सामना 
काश ताड़ के पत्तों की तरह 
मैं भी कट  जाती कई भागों में,
फिर जीवन के थपेड़ों के वेग 
मुझे भी नहीं गिरा पाते । 
जरा सा झंझोरकर बस 
निकल जाते मेरे बीच से,
मैं भी निर्भीक हो 
खड़ी  होती अटल,
निर्मूल ना होती 
जड़ी रहती जड़ों से । 

या फिर होती 
बांस के पत्तों सी,
आंधी जिधर मोड़ती 
मुड़  जाती मैं भी ,
थपेड़ों के चंवर में 
डोलती तो जरूर 
पर उखड़ती नहीं 
अपने वजूद से । 

पर मनसा वचसा  
हिना की पत्ती,
पिसती जाती,
अपने खून के रंग में 
रंगती जाती,
खुश्बू में 
डुबोती जाती 
अस्तित्व मगर,
निर्मूल औ अचेत हो । 

स्वाति वल्लभा राज 

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