कुछ सपने टूट कर बह निकले
की आज फिर तकिये गीले हैं|
अभी तक नमी महसूस हो रही,
की हम फिर सोतों से मिले हैं|
न सूखते है ये सोते
ना सपने ही पूरे होते हैं|
अमिट छाप छोड़ते ये
अनवरत यूँ हीं बहते हैं|
अश्रु क्या है,
मन -मंदिर के टूटे हुए
सपनो की छवि,
वास्तविकता के पटल पे
जो बनते और बिगड़ते हैं|
स्वाति वल्लभा राज
स्वाति वल्लभा राज
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ReplyDeleteबहुत खूब | आसुओं की इतनी भावनात्मक प्रस्तुति यक़ीनन
ReplyDeleteकाबिल-ए-तारीफ है |
Beautiful as always.
ReplyDeleteIt is pleasure reading your poems.
फुर्सत मिले तो 'आदत.. मुस्कुराने की' पर आकर नयी पोस्ट ज़रूर पढ़े .........धन्यवाद |
ReplyDeletehttp://sanjaybhaskar.blogspot.com/2011/06/blog-post_10.html
सुन्दर प्रस्तुति
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