Wednesday, 25 July 2012

जज्बों कि चौपड़



भावनाएं नंगी खड़ी दुनियादारी के बाज़ार में,
कभी तो है बोली लगी,कभी नुमाइश इश्तहार में|
नीलामी हुई कहीं समझदारी के नाम पर
कहीं बेचारी लुटी पड़ी बेवफाई के दाम पर|

 

कभी चाँद छूने की होड में खूब नोच-खसोट हुई
कभी जज्ब को चाँद कह,शीतल अर्क की छिनौट हुई|
भाव जो तेरे खरे-खरे तो हर कदम पे इनको वार दो
इसके साथ में तो सब मिले,फिर चाहे इसको हार दो|

 

जिंदगी की चौपड़ में,हर शख्स आज धर्मराज है,
जज्बों की द्रौपदी की बिकती अब भी लाज है|
फिर चाहे इसको छल कहो या मज़बूरी का जामा दो,
महाभारत तो अटल हीं है,चाहे जो हंगामा हो|

स्वाति वल्लभा राज

6 comments:

  1. जिन्दगी के चौपड़ में भावनाएं लुप्त हो जाती है

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  2. बहुत ही सुन्दर भावों से सजी ये पोस्ट लाजवाब है ।

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  3. स्वाति जी नमस्कार...
    आपके ब्लॉग 'अनीहर्ईषना' से कविता भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 29 जुलाई को 'जज्बों की चौपड़...' शीर्षक के कविता को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
    धन्यवाद
    फीचर प्रभारी
    नीति श्रीवास्तव

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  4. आज 23/009/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

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  5. चौपड़ का खेल आज भी चल रहा है ,चलता रहेगा --सुन्दर रचना
    Latest post हे निराकार!
    latest post कानून और दंड

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  6. वाह!!! बहुत ही बढ़िया लिखा है स्वाती जी ....बहुत खूब

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