खिड़की पर खड़े मैं नीचे जीवन देख रही थी|
भारी बस्तों के बोझ तले कुचले बचपन देख रही थी|
सूनी आँखों में मरे हुए मैं स्वपन देख रही थी|
माँ-बाप के ख्वाइशों को ढोते मैं रुदन देख रही थी|
रक्त-रंजीत कदम की राह में पड़े नुकीले कुरून देख रही थी|
हाँ मैं जीवन देख रही थी,मैं बचपन देख रही थी|
कल मैं छुटपन पे पड़े कफ़न देख रही थी|
आज मैं जीवन और कल मैं मरण देख रही थी|
मैं बचपन देख रही थी,मैं बचपन देख रही थी|
स्वाति वल्लभा राज
स्वाति जी आपकी कविता की एक एक पंक्ति दिल छू रही है ... बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआज मैं जीवन और कल मैं मरण देख रही थी|
ReplyDeleteमैं बचपन देख रही थी,मैं बचपन देख रही थी|...ऐसा ही हो गया है नाम का बचपन