अन्तः-मन कानन में विस्तृत रम्य अनेकों वन हैं|
कुछ सतपुड़ा-जंगल से घनेरे,कुछ छिटके से जन हैं|
सपनों को कभी विश्राम देते,कभी उद्विग्न मन हैं|
कभी अस्तित्व आश्वस्त करते,कभी विरक्त तन हैं|
रश्मि-रथी के ओज से वंचित कहीं अंधेर नगरी बसी,
अत्यधिक तेज से झुलसी कहीं कोमलता जली पड़ी|
स्वयं को अभिभूत करते फल हैं कहीं आच्छादित हुए,
बाँझपन का फ़िकरा कसते फिर निर्मम योजन हैं|
नदियों के तट बांधे हुए अडिग से कुछ यौवन हैं,
झंझावात से थके हुए निराश,पड़े से कुछ जीवन हैं|
अन्तः मन की कौतुकता और आत्म-मंथन की तत्परता
हैं कहीं वन की शाश्वतता,तो कहीं बिखरे,लूटे क्रंदन हैं|
स्वाति वल्लभा राज
नदियों के तट बांधे हुए अडिग से कुछ यौवन हैं,
ReplyDeleteझंझावात से थके हुए निराश,पड़े से कुछ जीवन हैं|
बेहद अच्छी पंक्तियाँ।
सादर
नदियों के तट बांधे हुए अडिग से कुछ यौवन हैं,
ReplyDeleteझंझावात से थके हुए निराश,पड़े से कुछ जीवन हैं|... गहन अभिव्यक्ति
bahut hi gahan abhivykti hai
ReplyDeleteनदियों के तट बांधे हुए अडिग से कुछ यौवन हैं,
ReplyDeleteझंझावात से थके हुए निराश,पड़े से कुछ जीवन हैं|
बहुत गहरी अभिव्यक्ति और उतनी ही सुन्दर भाषा
अन्तः मन की कौतुकता और आत्म-मंथन की तत्परता
ReplyDeleteहैं कहीं वन की शाश्वतता,तो कहीं बिखरे,लूटे क्रंदन हैं|
सच, जो कुछ भी है देखा-जाना, ऐसा ही तो जीवन है!
इस सुन्दर रचना के लिए बधाई!
कविता गहरे अर्थ समेटे है । सुन्दर प्रतीक हैं । एक निवेदन है कि आप तुकान्त छन्द लिखतीं है तो लय व मात्रा का भी ध्यान रखें । फिर देखें कि आपकी सुन्दर कविता और भी सुन्दर बन जाएगी ।
ReplyDeleteस्वयं को अभिभूत करते फल हैं कहीं आच्छादित हुए,
ReplyDeleteबाँझपन का फ़िकरा कसते फिर निर्मम योजन हैं|
वाह !!!!!!!!!!!!!! बहुत ही सुंदर और कोमल भावों की तरंगिणी.......
अन्तः मन की कौतुकता और आत्म-मंथन की तत्परता
ReplyDeleteहैं कहीं वन की शाश्वतता,तो कहीं बिखरे,लूटे क्रंदन हैं|
जीवन को परिभाषित और विभिन्न पहलुओं को उजागर करती, गंभीर भाव समेटे सुंदर कविता.
sundr rachna likhi aap ne bdhaai...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना...
ReplyDeleteगठी हुई अभिव्यक्ति..