तम के घोर शिविर में
सिसकती,रोती कलपती,
बेबसी का लबादा ओढ़े
खड़ी थी वो परछाई|
चिता थी सम्मुख
धधकती,भीषण रूप धरे|
भावनाओं को खुद में समेटे
खड़ी थी वो परछाई|
वो गया जिसको जाना था
मन उसका अब भी जल रहा
अपनों से भरे इस दुनिया में,तन्हा
खड़ी थी वो परछाई|
मानवता के कृत्रिम शिखर पर
अट्टहास करती थी चतुराई|
ह्रदय के मुरझाये पुष्प लिए
खड़ी थी वो परछाई|
स्वाति वल्लभा राज
एक परछाई रूह बनी पास रही ... सबकुछ समझती गई, संजोती गई ... खुद से अलग उदास सी
ReplyDeleteparchhayi se kuchh nahi chhip sakta. sunder abhivyakti.
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