Sunday 4 September 2011

नमोस्तुभ्यम हे सर्वोपरि गुरु

दर्पण से दर्शन तक 
विस्तार है तेरे प्रेम का |
धरा के आगाज़ से अंजाम तक 

विस्तार है तेरे प्रेम का |
तू छू ले माटी सोना हो जाए,
तेरे तपिश में स्वर्ण कुंदन बन जाये|
तू साथ दे तो अस्तित्व मिले,
तेरे सानिध्य में ही महत्त्व मिले |
तू साथ दे तो जग जीतूँ,
जो छोड़े साथ तो मैं भटकूँ |
तेरे डांट में माँ की चिंता दिखें,
लाड में माँ की ममता मिले |
पथ-भ्रष्ट या दिग्भ्रमित होऊं,
तेरा संबल मुझे पथ ज्ञान दे |
तेरा मार्ग-दर्शन ही मुझे
जग में सम्मान दे |
थकू जो बिच राह में तो
तेरे शब्द पुनः स्फूर्ति दे |
इतराऊं जो मंजिल से पूर्व
वही शब्द पुनः जागृति दे|
नतमस्तक हूँ जो तुने
ढेले को मूर्त रूप दिया,
अस्तित्व-विहीना को नव रंग
और स्वरुप दिया |
स्वाति बूंद बरस कर बह जाती,
खोकर खुद को मैं मर जाती
सीप बनकर बटोर उस बूंद को,
और मोती का मुझको रूप दिया |
अपनी आभा से चमकूँ हर पल
तम में भी ऐसा धुप मिले |
कर्जदार मैं हूँ तेरी, हर साथ का हर मोड़ पर |
जीवन-पर्यंत रहना यूँ ही, प्रार्थना कर जोड़ कर |
सृष्टि के आदि से अंत तक
तेरी कीर्ति यूँ ही अमर रहे |
जग को मार्ग -दर्शित करने वाली,
तेरी कृति यूँ ही प्रखर रहे |
हे गौरवमयी गुरु नमोस्तुभ्यम |
नमोस्तुभ्यम हे सर्वोपरि |