Sunday 27 September 2015

प्रश्न


मैं सीता ।
अजन्मी, ब्याहता ,निर्वासिता
फिर हरी गयी । 
धर्म युद्ध में जीती गयी ।
नरोत्तम के उत्तमा के लिए
अग्नि परीक्षित हुयी ।
कुछ साँसों में हीं जीविता रही
फिर बहिष्कृत हुयी ।
धोबी का संदेह अपनी वामा पर
समझाने के बजाय
अपनी पत्नी तिरष्कृत हुयी ?
यह कौन सा राज धर्म था ?
यही गति थी तो अग्नि परीक्षण क्यों?
प्रजा पालक पर प्रजा का संदेह तो
क्या यही निदान उचित था ?
और आज तुम पुरषोत्तम और मैं सीता ।
स्वाति वल्लभा राज

Monday 14 September 2015

धर्म और मानसिकता

मैं ना तो धर्मांध हूँ और ना हीं नास्तिक । कर्म काण्ड को बढ़ावा भी नहीं देती मगर उस पर टीका टिप्पणी भी नहीं करती । आस्था, श्रद्धा और विश्वास की परिभाषा सबके लिए अलग अलग होती है । मैं यहाँ पर अपना एक अनुभव लिख रही हूँ और अपेक्षा है की आप सबसे सुझाव मिलेगा मुझे ।
कल मैं तिरुपति गयी थी । भीड़ अपेक्षित थी । समय और परेशानी की वजह से ३०० रूपये वाला टिकट भी कराया था। दर्शन का समय सुबह के १० बजे का था। सुबह ९ बजे हीं मंदिर- प्रांगण में प्रवेश मिल गया। मन में बहुत उत्साह था क्योंकि शादी के बाद पहली बार पति के साथ किसी मंदिर में गयी थी । मन में हरी नाम लिए कतार बद्ध हो आगे बढ़ रहे थे। कुछ दूर तक तो सब सही लगा । फिर सारे सिक्योरिटी चेक के बाद कतार दो फिर तीन फिर चार फिर पांच हो गयी । एक कमरे जैसे जगह में जहाँ ऊपर ३५ लिखा था , कतार भीड़ में तब्दील हो गयी और भीड़ वहीँ रुक गया । पता चला शायद आरती वजह से दर्शन बंद है अभी । कुछ समय तक तो ठीक लगा । फिर भीड़ की जो औकात होती है ,वो दिखने लगा । गोविंदा गोविंदा करते कुछ लोग धकियाने लगे और आगे बढ़ने का प्रयास करने लगे। शरीर से शरीर को ऐसे रगड़ रहे थे की मुझे बहुत असुविधा होने लगी । मैंने आवाज़ ऊँची करके इसका विरोध किया । कुछ लोगों ने साथ दिया। और ठेलम ठेल तो बंद हो गयी मगर वो भीड़ जिसमे निह संदेह कुछ उन्मादी लोग भी थे , उनसे असुविधा होने लगी। १ घंटे उस कमरे में मेरी जो मानसिक दशा हुयी उसने सारा उत्साह रौंद डाला । कतार ना होने की वजह से समझ नही आ रहा था कौन इधर उधर से हाथ पैर लगा रहा । कई बार थोड़ी बहुत जगह बदली , बहुत बार बॉडी पोस्चर बदला । दीवार से टेक लगा के खड़ी हुयी फिर पहले आस पास के औरत और लड़कियों के चेहरे के हाव भाव पढ़ने की कोशिश की। कुछ के चेहरों पर हवाइयां उड़ती दिखी । मैं बहुत कुछ समझ गयी थी और सारी श्रद्धा काफूर हो गयी । धीरे धीरे भीड़ आगे बढ़ी और कुछ दूर बाद फिर सब कतार बद्ध हो गए । इस बार उलटे क्रम में चार, तीन, दो फिर एक । मैंने अपना मन पुनः एकाग्र करने का प्रयत्न किया। मगर हाय रे विकृत मानसिकता , जिसे मंदिर जैसा पवित्र प्रागण भी नहीं सुधार पाया । जैसे हैं मुख्य मंदिर में मैंने पाँव रखा , पीछे से कमर पर किसी ने हाथ फेरा , मैं फ़ौरन पलटी मगर समझ नही पायी । मन भर गया । फिर भी मन कड़ा कर राज से कहा की मुझे दोनों हाथों से घेर कर रखे।
दर्शन हुए और अजीब सी मनोदशा लेकर मैं लौट आई ।
मैं दावे से कह सकती हूँ ये मेरे अकेले का पहला अनुभव नहीं होगा । सिर्फ दो बाते कहना चाहती हूँ यहाँ ।
पहली मानसिकता और सोच बदलो । औरत सिर्फ मज़े की चीज़ नहीं है।
दूसरी ऐसे जगहों पर और सही मैनेजमेंट होना चाहिए । तीन बार सिक्योरिटी चेक करके बम तो लाने से रोक देंगे लोग मंदिर प्रांगण में परन्तु जो लोगों के पप्रांगण में भी ब्यभाचरिता को लेकर प्रवेश करते हैं , उन पर भी अंकुश अवश्यम्भावी है । कतार ही रखें। हो सके तो ५०-६० लोगों के cluster हीं प्रवेश करने दे और मैनेजमेंट की लोग हर जगह हों क्योंकि निर्भीकता, भीड़ और विकृत सोच तीनों अगर इकठे हो तो परिणाम बुरा ही होता है ।
अगर किसी के धार्मिक भावना को ठेस पहुंची हो तो माफ़ी चाहूंगी ।
स्वाति वल्लभा राज