Wednesday 6 August 2014

दिवा स्वप्न


सफ़ेद चादर में लपेटे हूँ 
अपनी हसरत,
सबसे खूबसूरत एहसास, 
जिसमें तुम निर्भीक हो 
खेल रही थी मैदान में ,
बिना डर के 
भर रही थी रंग अपने 
हर ख्वाब में, 
कुलाँचे मार रहे थे 
हर उमंग,
तुम खुश थी,
आज़ाद थी ,
बेख़ौफ़ थी ,
हैवानियत के नज़र से दूर थी 
बचपन,यौवन,बुढ़ापा 
सब जीया तुमने भरपूर 
और बेदाग़ रहा तुम्हारा शरीर,
पर जानती हूँ 
यह दिवा स्वप्न है 
माफ़ करना 
मेरी बच्ची इस ख़ौफ़ज़दा
ज़िंदगी के लिए । 

स्वाति वल्लभा राज 


Monday 4 August 2014

सपनों के दुर्गन्ध




मन के बगीचे में 
ठहर गया है स्वप्न पानी  सा, 
और हर पल घिरी हूँ अब 
अपने हीं सपनों के दुर्गन्ध में । 

खोदना होगा अब एक नाला 
अपने हैं मन में, 
ताकि ये ठहरा पानी निकल जाए 
और महसूस करूँ कुछ ताज़गी 
अपने हैं सपनों का तिरष्कार करके । 
स्मृतियों  के अवशेष में हीं 
ढूँढूँगी उनके निशाँ 
और बढ़ चलूंगी कुछ नयी उड़ान की ओर 
जीवन के कुरुक्षेत्र में । 

स्वाति वल्लभा  राज