रूह जख्मी,जिस्म छीला,
दिल बुझा सा|
कारवाँ में भी वजूद
है तन्हा सा|
मृग-मरीचिका में गुम
खुद की पहचान|
अपने हीं घर में
हम मेहमान|
ये जग अपना या
वो जग है घर|
जीर्ण –शीर्ण ये धाम
सब है जर्जर|
है आत्मा बोझिल
वहाँ जाऊं कैसे?
है दिल कलुषित,
यहाँ निभाऊँ कैसे?
स्वाति वल्लभा राज