Wednesday 29 March 2017

काश कोई ऐसा साबुन होता !



काश कोई ऐसा साबुन होता
जो धो पाता मेरे रूह पर पड़े धूल को!
रूह, जो गन्दी हुई थी पहली बार
जब तुमने कहा था; लड़की हो, धीरे बोलो
जिस उम्र में रंगने थे सपने
तुमने रंग दी मेरी तकदीर
पढ़ाने के बदले सीखा दिया चुप्पी का पाठ
रूह की मैल जम कर काई हो गई
जब शादी के अगले दिन सास ने तौल दिया
गहनों को, मायके की लाज पर
और रात रौंद दिया पति ने सफ़ेद चादर पर
बेटी कोख़ में जो आई
तो पूरी तरह धूसर हुई रूह
तीन को मारने के बाद।
आज ढूंढ़ रही साबुन
जो चमका दे मेरी रूह को
तुम्हारे हिसाब से
सपनों को रौंद कर!
सौ तौले सोने में मोल दूँ मायके की लाज़!
पहली रात में गिरे दो बूंद खून के जो
उठा दे मेरा मान!
जब भी पेट से होऊं
लड़का ही बोउं, लड़का ही कान्टु!
दे देना साबुन जो मिले तुम्हे तो
इस बदरंग रूह का बोझ
अब मुझ पर भी भारी हो रहा!
स्वाति वल्लभा राज