Saturday 19 April 2014

कुलबुलाता बुलबुला




तेरी यादों का बुलबुला
फूट जाता है
बेहयाई के खंजर से
जो भोंका था तुमने
मेरे हर स्वपन पर,
हर एहसास पर,
और आखिरकार 
मेरे अस्तित्व पर |

नश्तर की तरह उतर  गए 
वो शब्द,
''बिस्तर तक सब ले जायेंगे
घर में कोई नहीं''
हतप्रभ मैं खड़ी रह गयी
जैसे काठ मार गया हो |
मन कचोट गया
''दिया तो तुमने भी सिर्फ बिस्तर हीं
सिंदूर के नाम पर
घर कहाँ दिया''
पर शब्दों को सिल लिया,
और ताकत बना लिया 
उन्हीं शब्दों को,
भावनाओं और अनुभव के 
चाशनी में पकाकर,
मीठी कर डाली 
सारी कड़वाहट
और देखो 
आज मैं घर में हूँ
एक प्यारे से दिल में हूँ,
कोई  शिकवा नहीं.
फूटता है तो फुट जाये
कीचड़ में कुलबुलाता बुलबुला |

स्वाति वल्लभा राज

Sunday 13 April 2014

सहमे मेरे लव्ज़




सिसके,सहमे,घुटे से ​
बेजुबान लव्ज़ 
ठिठके खड़े होंठों के 
दरवाज़े पर 
लाचार, बेबस चाहते तो है 
कहे जाना, सुने जाना,
पर बेहतरी समझते रहे 
यूँ ठिठके रहना, 
चुप्पी की किल्ली चढ़ाये ,
क्या पता बाहर निकले 
और अस्मत लूट ले 
घात लगाये 
लव्ज़ों का कोई सौदागर 

स्वाति  वल्लभा राज

Monday 7 April 2014

मेरा गलीचा




मन के सफ़ेद गलीचे  में 
तुम तुरुप गए दो लाइन 
काले रंग से । 
तुरपाई चाहे सिल दे फटे को 
पर 
जोड़ नहीं पायेगा 
अंतर्मन के चीथड़े को,
और बदरंग भी तो कर गया 
मेरे सुन्दर गलीचे को । 
तुम्हे क्या लगा 
सजा दिया तुमने फिर  से 
और सज़ा माफ़,
पर हमारे बीच की खाई को 
पाटना नमुमकिन है । 
खोल दी मैंने आज वो तुरपाई 
और हो गयी मुक्त 
तुम्हारे बंधन से,
वक़्त भर देगा इस जख्म को भी 
और मेरा गलीचा होगा फिर से धवल । 

स्वाति वल्लभा राज