Saturday 14 February 2015

पाती

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​​ऐ पाती तू ले जा संदेसा
मेरे पिया आँगन ,
इह लोक पराया देस लागे
उह लो हीं तो आपन ।
मोह -मरन  से बंधन-मुक्त ;
उन्मुक्त, मैं विचरन  करती ,
भू मंडल पर छिन -छिन अकुलित
व्यथित,गुन -दोस आंकलन करती ।
भ्रमर सा भ्रमित उद्विग्न मन;
भटके हर लत-कली -डाल -पुष्प ,
चित पर अँधियारा घन घोर पी
जन्म दत्तक -पालक सब हुए रुष्ट ।
पाती तू ले जा अश्रु ये
रक्त -रंजित कलुषित देह ये ,
दर्पण सा निश्छल प्रेम -पगा
कोरा चित, पी को देय ये।

स्वाति वल्लभा  राज



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