मन के बगीचे में
ठहर गया है स्वप्न पानी सा,
और हर पल घिरी हूँ अब
अपने हीं सपनों के दुर्गन्ध में ।
खोदना होगा अब एक नाला
अपने हैं मन में,
ताकि ये ठहरा पानी निकल जाए
और महसूस करूँ कुछ ताज़गी
अपने हैं सपनों का तिरष्कार करके ।
स्मृतियों के अवशेष में हीं
ढूँढूँगी उनके निशाँ
और बढ़ चलूंगी कुछ नयी उड़ान की ओर
जीवन के कुरुक्षेत्र में ।
स्वाति वल्लभा राज
हमेशा हिम्मत हौसला यूँ ही बनाये रखना
ReplyDeleteस्नेहाशीष