Monday 2 May 2011

khwaab ya haqeeqat

जिंदगी हर पल मुस्कुराती,गुनगुनाती कितनी अच्छी लगती है न? उदासी 
 से कोसो  दूर अपने धुन अलापती जिंदगी,खुद में ही पूर्णता को पाती जिंदगी.मगर हकीकत की धरातल तो कुछ और ही बयान करती है.हम अपने ख्यालो के उड़ान को धीमे नहीं करना चाहते और ना हकीकत को जानना चाहते है सिर्फ अपने सतरंगी इन्द्र-धनुष पे सवार चलते चले जाते है,ना जाने जिंदगी से दूर या उसके करीब.कई बार हमारी चेतन अवस्था हमें आगाह करती है लेकिन हम सुसुप्त अवस्था या फिर जाग्रत अवस्था के ही अर्ध-चेतन अवस्था में मग्न रहते है.हमारी दृष्टि रेगिस्तान के मरीचिका से दिग भ्रमित हो आगे बढ़ती जाती है ये विश्वास लिए की मंजिल अब दूर नहीं मगर हर कदम हमें पथ-भ्रमित करने के साथ हमारी हिम्मत तोड़ने लगती है और हम निराशा के बादल से ढकते चले जाते है.जब तक हमें एहसास होता है की हम दिशा भटक चुके है तब तक शायद देर हो चुकी होती है. हम अपने सपनो की दुनिया से बाहर निकलना चाहते है लेकिन उन सपनो की गाठे इतनी मजबूत हो चुकी होती है की ना तो हम उन्हें खोल पाते है और ना ही तोड़ पाते है; बस खड़े ही रह जाते है उस जगह पे बेबस और लाचार. सपने देखना अच्छी बात है मगर उन्हें ही हकीकत मान लेना  जिंदगी का रस खोने जैसा है. जिंदगी को जीने के लिए ज़मीनी हकीकत से जुड़े रहना निहायत ही जरुरी है. सपने देखो मगर उनमे जान डाल के. मृग-मरीचिका ने तो सीता माँ को भ्रमित कर रामायण की नीव रख दी थी जो किसी महा-भारत से कम साबित नहीं हुई फिर हम तो इंसान है. खुल के जियो दोस्तों ,खूब सपने भी देखो मगर हकीकत का सामना करते हुए और सपनो को हकीकत में बदलने के लिए अपना धैर्य और ताकत सही दिशा में लगाते हुए. फिर ना तो मंजिल दूर होगी और ना ही जिंदगी.


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