Tuesday 24 April 2012

जाऊं कहाँ


रूह जख्मी,जिस्म छीला,
दिल बुझा सा|
कारवाँ में भी वजूद
है तन्हा सा|


मृग-मरीचिका में गुम
खुद की पहचान|
अपने हीं घर में
हम मेहमान|

ये जग अपना या
वो जग है घर|
जीर्ण –शीर्ण ये धाम
सब है जर्जर|

है आत्मा बोझिल
वहाँ जाऊं कैसे?
है दिल कलुषित,
यहाँ निभाऊँ कैसे?

स्वाति वल्लभा राज

Thursday 12 April 2012

उर्मिला का संताप



है पूजित संसार में, राधा मीरा का प्रेम
सावित्री अनुसुइया बनी, पतिव्रता की हेम|

अनुगामिनी जानकी थी, पति के साहचर्य को
लक्ष्मण संग रहे सदा, भातरी प्रेम वशीभूत हो|


निर्वाहित धर्म सब जन द्वारा
अनुकरणीय पथ, हर पात्र प्यारा|

एक छवि क्यों विस्मित हुई
त्याग की प्रतिमा, उपेक्षित हुई|


क्या मोल उस विरहणी के संताप का
परित्यक्ता एकाकी जीवन के हिसाब का|

क्या सर्वोच्च नहीं  उर्मिला का बलिदान
वो जोगन जिसने दिया त्याग का दान|

हर पल विरह की आग में जलती
तथापि भाव शुन्य न होती|

त्याग की कुंड में खुद को होम करती,
उर्मिला, तेरे मौन साधना को नमन  करती|




swati vallabha raj