Tuesday 24 January 2012

एक सवाल


खून किया मेरे अरमानो का और यूँ ही सिसकता छोड़ दिया,
कसूर क्या इतना था मेरा कि अंगारों पे दहकता छोड़ दिया|
लाज ली जिस सिंदूर की और हाथों से दामन चीर दिया,
मेरी  कहानी के अर्थ को , मंजिल से अचानक मोड़ दिया |

साथ दिया बाबुल तूने भी,दर-दर भटकी थी तन्हा जब मैं,
क्षुधा की थप्पड़ सहती , सिसकी रात-रात भर थी तब  मैं|
भूखे जल्लादों का ये समाज ,था आतुर  जब चीरने  को,
ना आया तू  भी जब तिल-तिल कर, पल-पल मरी थी ऐसे मैं|

फिर आया वसंत  तू जीवन में मेरे 
कोमल एहसास बन कर एक दिन,
पर  घिरा तू भी मजबूरियों और 
जिम्मेदारियों के चक्रव्यूह में।

तड़प रही  तेरी रूह भी है जब 
आज  हूँ मृत्यु  शय्या पर मैं।

थकी हुई आत्मा को है एक सवाल कचोटती, 
वो  जिसने मेरी मांग भरी या  जिसने मुझको जन्म दिया,
या वो फिर जिसने नयी जिंदगी दी,
कौन करेगा मेरी अंत्येष्टि,कौन देगा मुखाग्नि?
क्या यूँ ही फिर शिकार हो जाउंगी
समाज के कई सोच और दायरों का।

स्वाति वल्लभा राज





7 comments:

  1. नारी के मन में उठते कई प्रश्नों में से अहम प्रश्न ..अच्छी प्रस्तुति

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  2. गंभीर बातो को शब्दों में ढाल दिया है आपने

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  3. बहुत ही संवेदनात्मक काव्य रचना

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  4. गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभ कामनाएँ।
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    कल 27/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  5. समाज के खोखले आडम्बरो को झेलती हुई एक नारी के अंतर्मन की वेदना के अंतर्द्वंद का बहुत ही भावुक और उत्कृष्ट प्रदर्शन !

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  6. बहुत खूब..
    संवेदनशील रचना.

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  7. बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति है..

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