Friday 23 December 2011

सब्र का बाँध


टूट गया फिर इक दर्द से ही,
क्या करें सब्र का बाँध ही तो है|
उफन पड़ी फिर अश्रु नदियाँ,
पगली,जिद्दी,नादान हीं तो  है|

प्रहार किये बारम्बार जो
दर्द के कटार ने,
रक्त साखी टपक पड़ा स्वपन
मासूम,कमजोर,अनजान हीं तो है|


रौनक कैसे आएगी मुख पे,
हरियाली कैसे छाएगी?
चहुँ  ओर दर्द का आनन
वो भी बंजर बियाबान हीं  तो है|

जो देखा परिंदों को चुगते.उड़ते हुए,
बेफिक्र हो गगन में विचरते हुए|
और पाँख खोलें स्वयं के तो
पाया वो  मृत.भयावह,श्मशान हीं तो है|


आस लगी दिल में की रोऊँ
पर पीर घनेरी कम लगी|
आज उन्मुक्त बह चले ये
मनः वेग अंधड़ सामान हीं तो है|

दुबोएंगी कितनो को ये
आज इस प्रवाह में
बेपरवाह है तत्काल ये
उलझी,उपेक्षित परेशान हीं तो हैं|

स्वाति वल्लभा राज



12 comments:

  1. very nice....dil ke jajbato ka jwaar...sandaar:)

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  2. सुन्दर रचना, आभार.
    मेरे ब्लॉग पर भी पधार कर अनुगृहीत करें.

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  3. दर्द को बेइन्तिहाँ जिया है इस रचना में ...

    जो देखा परिंदों को चुगते.उड़ते हुए,
    बेफिक्र हो गगन में विचरते हुए|
    और पाँख खोलें स्वयं के तो
    पाया वो मृत.भयावह,श्मशान हीं तो है|

    बहुत खूबसूरती से लिखा है ..

    मेरे ब्लॉग पर आने का आभार

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  4. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 29 -12 - 2011 को यहाँ भी है

    ...नयी पुरानी हलचल में आज... जल कर ढहना कहाँ रुका है ?

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  5. आस लगी दिल में की रोऊँ
    पर पीर घनेरी कम लगी|
    आज उन्मुक्त बह चले ये
    मनः वेग अंधड़ सामान हीं तो है|

    अंदर तक छू गईं यह पंक्तियाँ।


    सादर

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  6. वाह ...भावमय करते शब्‍दों का संगम ।

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  7. बहुत बढ़िया....
    अच्छी रचना..

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  8. गहरी अभिव्यक्ति ...

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  9. भावपूर्ण रचना बहुत सुन्दर आभार

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  10. PAHLI BAAR APKE BLOG PAR AANA HUA. APKO PADHNA ACCHHA LAGA. SASHAKT LEKHAN.

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  11. नमनाक नजारे खींचती गहरी रचना.

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