Tuesday, 28 February 2012

नाकाम कोशिश- राजनीति


राजनीति
अहिंसा,सत्याग्रह के दत्तक ही
भूल चले उस राह को.
नत-मस्तक हूँ मै
हे राजनीति !
तेरे काया-कल्प पर !
स्वर्णिम इतिहास रचने वाले
पोत रहे अब स्याही,
नत-मस्तक हूँ  मै हे! राजनीति
तेरे नव रूप पर ! 


नाकाम कोशिश
कर गए बेपर्दा 
अनकहे ज़ख्मो को ये आँसू,
कोशिश तो की थी हमने
ता-उम्र मुस्कुराने की |

स्वाति वल्लभा राज



Thursday, 23 February 2012

ये जिंदगी....




तूफान में खड़ी मैं हर बार सोचती,इस बार हवा का दबाव शायद कम है पर मैं पगली ये नहीं समझ पाती –हवा का दबाव कम नहीं मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ हीं शिथिल पड़ती जा रही हैं....
आज न जाने क्यों जिंदगी के कई पन्ने खुद-ब-खुद खुलते चले गए|कुछ कोरे,कुछ बदरंग,कुछ के लिखावट स्पष्ट नहीं और कुछ बिलकुल सुन्दर लिखावट मे,मेरे अरमानो के चिथड़े उड़ाते हुए.....ज़िन्दगी  ने हमेशा कुछ न कुछ दिया मगर एक एहसान के रूप मे जिसके बोझ तले दबती चली गई|मैं कभी जिंदा नहीं रह पायी और मौत कितनी बार मेरा मजाक उडाकर चली गई.....

जीवन में कई उतार-चढाव की प्रत्यक्ष-दर्शिनी रही हूँ....उतार तो जीवन को गर्त मे ले जाता दिखा मगर चढाव हमेशा नयी चुनौतियों की ओर ले गया....नयी चुनौतियाँ जो कई मीलों के खाई से भी ज्यादा गहरी,तपती रेगिस्तान से ज्यादा झुलसती और पहाड़ों से ज्यादा पथरीली.....और मैं उन गहराइयों को अपने आत्मा से नापती,रेगिस्तान मे अपने अस्तित्व को गले तक झुलसाती
और अपने हीं इच्छाओं के अस्थि-पंजर के चुभन को लाघंती बढती जाती न जाने जिंदगी की ओर या उससे दूर........

स्वाति वल्लभा राज.....




Wednesday, 22 February 2012

जिजीविषा





जीवन की कैसी जिजीविषा है,
जीर्ण-शीर्ण परिस्थितियों में भी
जीने की अभिलाषा है|

शोषित है हर स्वपन लेकिन
मुक्त हर एक आशा है|
आलंबन भाग्य पर किन्तु,
स्वालम्बी कर्म प्रकाशा है|

नित दिन धराशायी प्रयास
किन्तु,नित नूतन संघर्ष है|
दमन हो हर ईहा का,पर
मनोबल  का उत्कर्ष है|
स्वाति वल्लभा राज 



Monday, 20 February 2012

गौरवाशालिनी,कनक, महाठगिनी?




गौरवाशालिनी!यह पुरष्कार,
प्रतिष्ठा या फिर  तिरस्कार?
गौ:”,अवशाऔर अलिनी”,
या केवल मैं गौरवाशालिनी?

कनक समान जो मोरी प्रवृत्ति,
पाने की क्यों फिर पुनरावृति?
मादकता जो तुझ पे छाये,
क्यों ना मुझसे दूर फिर जाये



महाठगिनी,जो मैं माया,
पकड़े क्यों फिर मोरी छाया?
तिरगुनफांस लिए जो तोहिं,
उलाहना ना दियो फिर मोहि||

स्वाति वल्लभा राज


Tuesday, 14 February 2012

तेरी बंदिनी




बंदिनी तेरे प्रेमपाश में,
तरंगिनी हूँ आकाश में|
अम्बुद बन बरसूं इला पर
किंकर बन पूजूँ शिला पर|


भूतेश तेरी मन्दाकिनी मैं,
अर्धनारीश्वर!अर्धागिनी मैं|
तू अर्णव, समाहित कुलंकषा मैं,
मृगांक!तेरी हिरण्य-प्रभा  मैं|


मैं शकुन्त हूँ, तू अनंत है,
जब डूबूं तू अडिग पतंग है|
अनुरागिनी तेरी अनुचारिणी मैं,
चित चोर तेरी सहचारिणी मैं|

स्वाति वल्लभा राज 















Monday, 13 February 2012

ठगा सा प्यार!




यूँ हीं कल नींद उचट गयी
वक्त देखा तो १२ बज रहे थे|
थोड़ी बेचैनी सी लगी तो
बाहर निकल आई|
                                                       
क्षात्रवास के प्रांगण में 
मंदिर के समीप सुगबुगाहट थी कुछ| 
सहसा आवाज़ आई पुच्च”,
कौतुकता ने घेर लिया|                                                       
                                                                                             
                                              
समीप गई तो देखा
दूरभाष पर ही चुम्बन की झड़ी थी|
मुझे देख थोड़ा घबराई मगर
निर्लाज्त्ता से कहा,
दी! haappy kiss डे! 
मैं निरुत्तर सी वापस मुड गई|

स्वाति वल्लभा राज

Sunday, 12 February 2012

मैं तवायफ़





तुम्हारी निगाहें हमें जीना सीखा गई,
तुम्हारी बंदिशे हमें लिखना सीखा गई|
तारीफ़ और क्या करे गुस्ताख दिल
तुम्हारी उल्फ़त हमें महकना सीखा गई|

                                                                             

                                                                     ज़लालत भरी निगाहें तकदीर थी हमारी
                                                                     बड़ी-बिगड़ी बदसूरत तस्वीर थी हमारी|
                                                                     उन कांपती हथेलियों को थामा  जो तुमने
                                                                     तुम्हारी छुवन हमें दहकना सीखा गई|
     
                                                                       
निगाहों के जाम में मद मस्त थी रातें
सजती मगर रोती बिलखती थी वो रातें|
तेरे क़दमों की आहट इनायत थी हम पर
तुम्हारी धडकनें हमें बहकना सीखा गई|

स्वाति वल्लभा राज 

Friday, 10 February 2012

ऐ प्यार तू अनामिका होता

 
ऐ प्यार तू अनामिका होता तो
ऐसे बदनाम ना होता|
शब्द-सीमा से परे होता
तो अनाहत अनाश्य होता|

अनिंदित,अनादी होता,
अनामय अनवरत होता|
शब्द-जाल में फंसा ना होता
तो अछिन्न,अच्युत, अचल होता|

तू अतर्कित,अतर्क्य होता
तू अतन,अवनी,हवन होता|
मोह-जाल में फंसा ना होता
तो अतुल,अकथ,अत्रस्त होता|
स्वाति वल्लभा राज

Sunday, 5 February 2012

जीवन



अन्तः-मन कानन में विस्तृत रम्य अनेकों वन हैं|
कुछ सतपुड़ा-जंगल से घनेरे,कुछ छिटके से जन हैं|
सपनों को कभी विश्राम देते,कभी उद्विग्न मन हैं|
कभी अस्तित्व आश्वस्त करते,कभी विरक्त तन हैं|

रश्मि-रथी के ओज से वंचित कहीं अंधेर नगरी बसी,
अत्यधिक तेज से झुलसी कहीं कोमलता जली पड़ी|
स्वयं को अभिभूत करते फल हैं कहीं आच्छादित हुए,
बाँझपन का फ़िकरा कसते फिर  निर्मम योजन हैं|

नदियों के तट बांधे हुए अडिग से कुछ यौवन हैं,
झंझावात से थके हुए निराश,पड़े से कुछ जीवन हैं|
अन्तः मन की कौतुकता और आत्म-मंथन की तत्परता
हैं कहीं वन की शाश्वतता,तो कहीं बिखरे,लूटे क्रंदन हैं|

स्वाति वल्लभा राज 

Friday, 3 February 2012

मैं बचपन देख रही थी


खिड़की पर खड़े मैं  नीचे जीवन देख रही थी|
भारी बस्तों के बोझ तले कुचले बचपन देख रही थी|
सूनी आँखों में मरे हुए मैं स्वपन देख रही थी|
माँ-बाप के ख्वाइशों को ढोते मैं रुदन देख रही थी|


रक्त-रंजीत कदम की राह में पड़े नुकीले कुरून देख रही थी|
हाँ मैं जीवन देख रही थी,मैं बचपन देख रही थी|
कल मैं छुटपन पे पड़े कफ़न देख रही थी|
आज मैं जीवन और कल मैं मरण देख रही थी|
मैं बचपन देख रही थी,मैं बचपन देख रही थी|

स्वाति वल्लभा राज 

Wednesday, 1 February 2012

स्वागतम

आप सभी समर्थकों,गुरु-जनों और प्रोत्साहन देने वालो से आग्रह है की मेरे दूसरे ब्लॉग पर भी आ कर मुझे प्रोत्साहित करें करें और मार्ग-दर्शन दें|
http://swati-vallabha-raj.blogspot.in/


साभार,
स्वाति वल्लभा राज

वो परछाई


तम के घोर शिविर में 
सिसकती,रोती कलपती,
बेबसी का लबादा ओढ़े
खड़ी थी वो परछाई|

चिता थी सम्मुख
धधकती,भीषण रूप धरे|
भावनाओं को खुद में समेटे
खड़ी थी वो परछाई|


वो गया जिसको जाना था
मन उसका अब भी जल रहा
अपनों से भरे इस दुनिया में,तन्हा
खड़ी थी वो परछाई|

मानवता के कृत्रिम शिखर पर
अट्टहास करती थी चतुराई|
ह्रदय के मुरझाये पुष्प लिए
खड़ी थी वो परछाई|

स्वाति वल्लभा राज