Tuesday 14 June 2011

तकिये गीले है

कुछ सपने टूट कर बह निकले
की आज फिर तकिये गीले हैं|
अभी तक नमी महसूस हो रही,
की हम फिर सोतों से मिले हैं|

न सूखते है ये सोते
ना सपने ही पूरे होते हैं|
अमिट छाप छोड़ते ये
अनवरत यूँ हीं बहते हैं|

अश्रु क्या है,
मन -मंदिर के टूटे हुए
सपनो की छवि,
वास्तविकता के पटल पे
जो बनते और बिगड़ते हैं|
स्वाति वल्लभा राज 

5 comments:

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  2. बहुत खूब | आसुओं की इतनी भावनात्मक प्रस्तुति यक़ीनन
    काबिल-ए-तारीफ है |

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  3. Beautiful as always.
    It is pleasure reading your poems.

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  4. फुर्सत मिले तो 'आदत.. मुस्कुराने की' पर आकर नयी पोस्ट ज़रूर पढ़े .........धन्यवाद |
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com/2011/06/blog-post_10.html

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