Monday 20 June 2011

चल-चला-चल



मन बहुत विचलित है आज
कि दर्द भी है हो रहा|
जागे थे जिस  ख्वाब से वो
ख्वाब खुद ही सो रहा|

क्या करूँ,जाऊं कहाँ अब
दिल हर पल सोचता|
हरसूँ तो है बस रुदन ही,
दिशा-ज्ञान भी खो रहा|

उठ तो फिर से हे!पथिक मन
बढ़ते जा फिर चल-चला-चल|
गिला करके क्या मिला 
फिर हश्र चाहे जो रहा|

स्वाति वल्लभा राज 




4 comments:

  1. jeevan ka ek kafi sahi n sachha chehra hai ye.. chahe jo bhi ho ye jeevan ki gadi kabhi nhi rukti na ruk sakti hai..

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  2. क्या करूँ,जाऊं कहाँ अब
    दिल हर पल सोचता|
    हरसूँ तो है बस रुदन ही,
    दिशा-ज्ञान भी खो रहा|

    Bahut Sunder...Kamal ki panktiyan

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  3. गिला करके क्या मिला
    फिर हश्र चाहे जो रहा|
    बहुत सुन्दर शुभकामनाएँ

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  4. http://charchamanch.blogspot.com/
    शुक्रवार : चर्चा मंच - 576

    जानते क्या ? एक रचना है यहाँ पर |
    खोजिये, क्या आपका सम्बन्ध इससे ??

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